Tuesday, July 5, 2011

रंग महोत्सव में साहित्यिक और पौराणिक कथाओं पर चढा समकालीन रंग

फिल्म एंड थियटर सोसायटी द्वारा आयोजित पहला वार्षिक आर्ट फेस्टिवल् जिसे "रंग" नाम दिया गया, दिल्ली के लोधी रोड स्तिथ अलायेंज फ्रंकाईस और इंडिया हेबिटाट सभागारों में धूम धाम से संपन्न हुआ. इसमें कुल ५ नाटकों का मंचन हुआ और एक शाम रही संगीत बैंड ब्रह्मनाद के सजीव परफोर्मेंस के नाम. काफी संख्या में दर्शकों ने इस अनूठे आयोजन का आनद लिया. ५ नाटकों में से एक "सिद्धार्थ" (जिसे अशोक छाबड़ा ने निर्देशित किया है) को छोड़कर अन्य सभी नाटक युवा निर्देशक अतुल सत्य कौशिक द्वारा निर्देशित हैं, और अधिकतर कलाकार भी अपेक्षाकृत नए ही हैं रंगमंच की दुनिया में मगर सबकी कर्मठता, जुझारूपन और खुद को साबित करने की लगन उनके अभिनय में साफ़ देखी जा सकती है. अधिकतर नाटक नामी साहित्यकारों की रचनाओं से प्रेरित हैं पर निर्देशक और उनकी टीम ने उसमें अपना 'रंग' भी भरा है. नाटकों को बेहद व्यवाहरिक और मनोरंजक अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है ताकि दर्शक एक पल के लिए भी ऊब महसूस न करे. यानी किरदार और विषय गंभीर होने के बावजूद उनकी प्रस्तुति आम दर्शकों को भी भरपूर मनोरजन देने में सफल हुई है. चूँकि ये ऍफ़ टी एस का पहला वार्षिकोत्सव था, इस दृष्टि से देखा जाए तो इस आयोजन को बहुत हद तक एक सफल आयोजन माना जा सकता है. ये संस्था निश्चित ही उम्मीदें जगाती है कि भविष्य में हम इस टीम से और भी उत्कृष्ट मंचनों की अपेक्षाएं रख सकते हैं जिसके माध्यम से हमें भारतीय कला संस्कृति और साहित्य के अनेक नए आयाम देखने को मिल सकेंगें.

ऍफ़ टी एस के इन नाटकों में एक और दिलचस्प पहलु हैं इनका पार्श्व संगीत. दरअसल यहाँ संगीत पूरी तरह पार्श्व भी नहीं है. "ब्रह्मनाद" बैंड के सदस्य वहीँ मंच के एक कोने में बैठे दर्शकों को नज़र आते हैं जो दृश्य के भावानुसार उपयुक्त संगीत वहीँ लाईव बजाते हैं. बीच बीच में कुछ गीत भी आते हैं और वो भी वहीँ मंच के कोने से लाईव गाये जाते हैं. ये एक अनूठा अंदाज़ लगा जिसकी बेहद सराहना भी हुई. निलोय घोष दस्तीदार, प्रनोय रॉय, श्रेहंस खुराना और सार्थक पाहवा से मिलकर बनता है बैंड "ब्रह्मनाद" जो भारतीय लोक संगीत में अपनी पहचान ढूंढ रहे हैं. आपको इनके गीतों में एक अपनापन मिलेगा. आजकल सुनाई देने वाले संगीत से बेहद अलग मिलेगा आपको इनका मिजाज़. व्यक्तिगत तौर पर मैं जिस तरह के गुण एक भारतीय बैंड में देखना चाहता हूँ मुझे उस कसौटी पर काफी हद तक खरा मिला "ब्रह्मनाद".


(काकी की भूमिका में पारुल, "कूबड़ और काकी" से एक दृश्य)
अतुल सत्य कौशिक निर्देशित नाटक कूबड़ और काकी में दो कहानियों का फ्यूज़न है, और नयी बात ये है कि ये दोनों कहानियां दो अलग अलग साहित्यकारों की है. हिंदी कथा साहित्य के दो दिग्गज कथाकारों, प्रेमचंद और धरमवीर भारती के दो अलग अलग कहानियों को एक सूत्र में बाँध कर प्रस्तुत किया गया है "कूबड़ और काकी" में. परनिर्भर और बेसहारा हुई दो औरतों के प्रति समाज के नज़रिए को बेहद संवेदना के साथ प्रस्तुत किया है मंच पर कलाकारों ने. विशेषकर काकी की भूमिका में पारुल ने शानदार अभिनय किया है. दोनों ही किरदारों के माध्यम से बहुत सी सामाजिक कुरीतियों और गिरते मानवीय मूल्यों पर भी ख़ासा प्रहार किया गया है. इस नाटक के बाद हमनें बात की निर्देशक अतुल सत्य कौशिक, काकी की भूमिका जान फूंकने वाली पारुल और ब्रह्मनाद बैंड के सार्थक पाहवा से. मेरे यानी सजीव सारथी के साथ थे अतुल सक्सेना और तरुमिता. लीजिये सुनिए यही बातचीत



पहला नाटक देखने और इन सब कलाकारों से बात करने के बाद हमारी उत्सुकता और बढ गयी दिन का अगला नाटक "अर्जुन का बेटा" देखने की. इस नाटक को एक काव्यात्मक अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है यानी पूरे नाटक के संवाद एक कवितामयी भाषा में दर्शकों तक पहुँचते है. जाहिर है ऐसे नाटकों में स्क्रिप्ट की उत्कृष्ठता सबसे अधिक अवश्य होती है, और यहाँ मैं कहूँगा की अतुल सत्य कौशिक पूरी तरह सफल हुए हैं. बेहद कसे हुए अंदाज़ में और भरपूर रचनात्मकता के साथ उन्होंने अभिमन्यु के वीरता, शौर्य और साहस का बखान किया है. हालाँकि यहाँ सभी कलाकार उस उत्कृष्टता तक नहीं पहुँच पाए हैं पर धर्मराज/अभिमन्यु की भूमिका में जिस कलाकार ने अभिनय किया उनका काम खासा सराहनीय है. यदि अन्य कलाकार भी उनका बेहतर साथ देते तो और प्रभावशाली होती ये प्रस्तुति. युद्ध के दृश्य सांस रोक देने वाले थे जो बेहद सफाई से मंचित हुए हैं. पार्श्व संगीत और लाईटिंग भी अपेक्षित प्रभाव देने में सफल हुए हैं.

(चक्रव्यूह में घिरा अभिमन्यु, "अर्जुन का बेटा" से एक दृश्य)
पर इस नाटक के वास्तविक हीरो तो खुद लेखक/निर्दशक अतुल ही हैं, कुछ संवादों की बानगी देखिये, स्वतः ही मुंह से वाह निकल पड़ती है.

गीता कहने सुनने के कुछ अवसर होते हैं अर्जुन,
प्रश्नों के उत्तर प्रश्नों पर ही निर्भर होते हैं अर्जुन...


(भीष्म पितामह अर्जुन और धर्म राज को समझाते हुए)

और जब अंत में आकर श्रीकृष्ण चक्रव्यूह का रहस्य खोलते हैं तो हर व्यक्ति जीवन के चक्रव्यूह में खुद को एक अभिमन्यु सा ही पाता है -

इस चक्रव्यूह से भला कौन निकल पाया है,
बस अंदर जाने का ही रास्ता सबने पाया है,


जो चक्रव्यूह को भेदकर पूरा वापस आ जायेगा,
वो जीवन मुक्ति पाकर अपने अंत को पा जायेगा...


ये जीवन ही एक चक्रव्यूह और हम सब हैं अभिमन्यु,
इसके भीतर लड़ते ही बीते ये जीवन आयु...


चलिए अब ऍफ़ टी एस को और इन सभी उत्साही और प्रतिभाशाली कलाकारों को शुभकामनाएं देते हुए आईये सुनें "अर्जुन का बेटा" का ये ऑडियो प्रसारण. इसमें हालांकि बहुत स्पष्टता नहीं है पर आपको खासकर जो दिल्ली से बाहर हैं उन्हें इस प्रस्तुति की एक झलक अवश्य मिल जायेगी. जल्द ही ऍफ़ टी एस अन्य शहरों में इन नाटकों का मंचन करेगा. जरूर देखियेगा इन्हें जब भी ये आपके शहर आयें.



प्रस्तुति - सजीव सारथी

No comments:

Post a Comment